Wednesday, July 7, 2010

'परिकथा' में संवदिया की चर्चा


प्रतिष्ठित हिन्‍दी पत्रिका 'परिकथा' के युवा कविता अंक, मई-जून, 2010 के 'ताना बाना' स्‍तंभ में स्‍तंभकार श्री भरत प्रसाद ने 'संवदिया' के नवलेखन अंक-2 (जनवरी-मार्च, 2010) में शामिल कुछेक कवियों पर निम्‍नांकित टिप्‍पणी की है--
स्‍त्री के अनकहे दर्द और राख बनती आकांक्षा के पक्ष में खड़ी चेतना वर्मा की कविताऍं आज की औरत के पराजित सच को महसूस कराने में पर्याप्‍त सक्षम हैं। इसी अंक में रणविजय सिंह सत्‍यकेतु की रचना 'एक कर्मचारी की डायरी'। यह कविता उस हर खुद्दार, सजग, संवेदनशील और तर्कभक्‍त बुद्धिजीवी की हो सकती है, जो अपने आत्‍मनिर्णय को सबसे ऊपर रखते हैं और अकेले चलते हैं। यदि किसी चाल में भेड़ें घुस गईं तो कोई दिक्‍कत नहीं, मगर 'एकला चलो रे' सिद्धांत का पालनकर्ता अच्‍छे-अच्‍छों को फूटी ऑंखों नहीं सुहाता। 'संवदिया' के इसी अंक में प्रकाशित है रमण कुमार सिंह की कविता 'तथाकथित सफल लोगों के बारे में चंद पंक्तियॉं'। यह कविता तथाकथित सफल लोगों की दर नंगी, निर्जज्‍जतापूर्ण और शातिराना हकीकत का मुँह-मुँह बयान करती है। तिकड़मी रास्‍तों के शॉर्टकट से फटाफट सफल हुए लोगों की रहस्‍यपूर्ण सच्‍चाई इस कविता की पंक्तियों से ज्‍यादा भिन्‍न नहीं होती।
स्‍तंभकार ने 'संवदिया' के अक्‍टूबर-दिसंबर, 2009 अंक में छपी शुभेश कर्ण की कविता 'गदहों पर कुछ पंक्तियॉं' तथा जनवरी-मार्च, 2010 अंक में छपी संजय कुमार सिंह की कविता 'उलटबॉंसी है यह...' को अलग से श्रेष्‍ठ कविता चयन में उल्‍लेखित किया है।

1 comment:

  1. संवदिया मेरी प्रिय पत्रिका रही है, विशेषकर देवेन्द्र भाई के जुडने से इसकी ताजगी व सार्थकता बढ़ी....हमारी शुभकामनाएं हमेशा आपके साथ है...।

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